
युगों से ठहरी झील - मैं
अनगिनत बूँदें कोख में समेट
अथाह बन गई.
तट दूर होते गए.
बादलों की परछाईं,
मंद-मंद हवा,
सूरज की तपती किरणें,
तूफान, ओले
सतह छूते रहे,
समतल विस्तार को
परिभाषित करते रहे.
आज तुमने
धीरे से जो कंकड़ी मारी
छोटी-सी लहर उठाकर
हर तट नाप गई.
कंकड़ी थी, डूब गई
और अनजाने ही
तल में समा गई.
उसके सहारे, लेकिन,
मैं अपनी तह पा गई. Published in Ajkal in 2002
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